नई दिल्ली, 7 जुलाई 2025 – बिहार में चल रहे स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) अभ्यास को लेकर उठे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए कहा कि चुनाव आयोग (EC) को संविधान ने “स्वयं में कानून” बनने की इजाजत नहीं दी है। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मुद्दे पर 1977 के मशहूर एम.एस. गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त केस का हवाला दिया।

इस फैसले में कहा गया था कि “फ्री एंड फेयर इलेक्शन” यानी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित हों, भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी शर्त हैं। न्यायमूर्ति धूलिया ने स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग को मिले विशेषाधिकार अनुच्छेद 324 के अंतर्गत हैं, लेकिन इनका दुरुपयोग कर EC को “संविधानिक निरंकुश” नहीं बनाया जा सकता।
इस पूरे विवाद की जड़ बिहार में शुरू हुआ SIR यानी विशेष सघन पुनरीक्षण अभियान है, जिसे चुनाव आयोग ने मतदाता सूची में गड़बड़ियों को ठीक करने और डुप्लिकेट/फर्जी वोटरों की पहचान के लिए शुरू किया है। हालांकि, विपक्षी दलों का आरोप है कि इस अभियान की आड़ में गरीब, वंचित और अल्पसंख्यक तबकों को बड़ी संख्या में मतदाता सूची से हटाया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में कई विपक्षी दलों ने एकजुट होकर याचिका दायर की, जिसमें SIR की वैधता और निष्पक्षता पर सवाल उठाए गए। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इस कवायद से करोड़ों लोगों के वोटिंग अधिकार छिन सकते हैं, और यह संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि “चुनाव आयोग को संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत जो शक्तियाँ दी गई हैं, वे असीमित नहीं हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हर नागरिक का अधिकार है। लोकतंत्र का मतलब ही यही है कि आम नागरिक को उसके मताधिकार से वंचित न किया जाए।”
न्यायमूर्ति धूलिया ने एम.एस. गिल केस की टिप्पणी को दोहराते हुए कहा कि, “थोड़े से नहीं, बड़े भारतीय को भी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया से दूर नहीं किया जाना चाहिए।” अदालत ने यह भी कहा कि “यदि चुनाव आयोग के अधिकारों की कोई सीमा नहीं होगी, तो वह खुद को संविधान से ऊपर समझने लगेगा। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।”
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने दलील दी कि SIR की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है और जमीनी स्तर पर इसे लेकर भारी अनियमितताएं देखी गई हैं। लोगों को सूचित किए बिना उनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए हैं। कुछ जगहों पर सिर्फ एक ही जाति या समुदाय के नामों को टारगेट किया जा रहा है।
विपक्षी नेताओं का दावा है कि यह कवायद खासकर 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में संभावित लोकसभा चुनाव से पहले एक सुनियोजित चाल है ताकि वंचित तबकों का चुनावी प्रभाव कमजोर किया जा सके।
चुनाव आयोग की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि SIR का उद्देश्य मतदाता सूची को साफ और अद्यतन बनाना है। आयोग के अनुसार, यह अभ्यास पूरी तरह से संविधान और कानून के तहत किया जा रहा है और इसमें किसी भी समूह को निशाना नहीं बनाया गया।
अदालत ने फिलहाल कोई अंतिम निर्णय नहीं सुनाया है लेकिन संकेत दिए हैं कि यह मामला लंबा चल सकता है और विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता है। पीठ ने दोनों पक्षों को दस्तावेज़ और रिपोर्ट सौंपने के निर्देश दिए हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह मामला न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश में चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता को लेकर एक बड़ी बहस छेड़ सकता है। चुनाव आयोग की भूमिका और उसकी जवाबदेही को लेकर यह मामला एक मिसाल बन सकता है।
1977 का एम.एस. गिल मामला उस समय का है जब इमरजेंसी के बाद देश में चुनाव प्रक्रिया को लेकर कई सवाल उठे थे। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता दी थी लेकिन साथ ही यह भी कहा था कि वे शक्तियाँ अंधाधुंध नहीं हैं।
अब 2025 में, वही तर्क एक बार फिर दोहराया जा रहा है – कि चुनाव आयोग को “संवैधानिक निरंकुश” बनने से रोका जाए और हर नागरिक के मताधिकार की रक्षा की जाए।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब देशभर में विपक्षी गठबंधन ‘भारत मोर्चा’ ने चुनाव आयोग पर लगातार सवाल उठाए हैं। इस मामले की अगली सुनवाई आने वाले हफ्तों में निर्धारित की जाएगी।
निष्कर्ष:
बिहार में चल रही SIR प्रक्रिया पर उठ रहे सवालों के बीच सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी एक चेतावनी की तरह है। संविधान ने चुनाव आयोग को अधिकार दिए हैं लेकिन वे अधिकार सीमित हैं और लोकतंत्र की भावना के भीतर हैं। हर मतदाता का अधिकार सुरक्षित रखना ही सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।