पटना, बिहार:
बिहार में इन दिनों मतदाता सूची के पुनरीक्षण को लेकर सियासी तूफान मचा हुआ है। सरकार जहां इसे लोकतंत्र की मजबूती का आधार बता रही है, वहीं विपक्ष इसे एक ‘राजनीतिक चाल’ करार दे रहा है। मतदाता सूची की बारीक जांच को लेकर जारी यह खींचतान अब ज़मीनी स्तर तक पहुंच चुकी है, जहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक इसे लेकर बहस छिड़ गई है।
क्या है मतदाता सूची पुनरीक्षण मामला?
भारत निर्वाचन आयोग के निर्देश के बाद बिहार में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसमें मृतक, डुप्लीकेट, स्थानांतरित या अपात्र मतदाताओं के नाम हटाने और नए योग्य नागरिकों को जोड़ने की प्रक्रिया तेज़ी से चल रही है। सरकार का दावा है कि यह कवायद चुनावी पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए की जा रही है।
सरकार की मंशा क्या है?
बिहार सरकार ने यह तर्क दिया है कि मतदाता सूची में बड़ी संख्या में फर्जी और डुप्लीकेट नाम दर्ज हैं, जो हर चुनाव में वोटिंग प्रतिशत को प्रभावित करते हैं। इसके चलते यह ज़रूरी है कि समय-समय पर सूची का गहन परीक्षण हो, ताकि सिर्फ वास्तविक और योग्य मतदाता ही वोटिंग अधिकार का उपयोग कर सकें।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा है, “लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए ज़रूरी है कि मतदाता सूची पूरी तरह से साफ़ और निष्पक्ष हो।”
क्यों बढ़ रहा है विरोध?
राजद, कांग्रेस और वाम दलों जैसे विपक्षी दलों ने इस प्रक्रिया का तीखा विरोध किया है। उनका आरोप है कि इस पुनरीक्षण के जरिए दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों के वोटरों के नाम सूची से हटाने की साजिश हो रही है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा, “यह मतदाता सफाई के नाम पर लोकतंत्र की सफाई है। यह एक योजनाबद्ध कोशिश है जिससे विपक्ष के पारंपरिक वोटर्स को सूची से गायब किया जा सके।”
ज़मीनी स्तर पर क्या हो रहा है?
मीडिया रिपोर्ट्स और स्थानीय स्तर पर मिल रही जानकारी के अनुसार कई स्थानों पर मतदाताओं को बिना जानकारी के सूची से हटाए जाने की शिकायतें सामने आई हैं। इसके अलावा एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दों की पृष्ठभूमि में यह संदेह और बढ़ जाता है कि कहीं यह सामाजिक आधार पर मतदाताओं को निशाना बनाने की कोशिश तो नहीं।
राजनीतिक असर क्या हो सकता है?
बिहार में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। ऐसे में यह मतदाता सूची पुनरीक्षण राजनीतिक दलों के लिए बेहद संवेदनशील मुद्दा बन गया है। यदि किसी वर्ग या क्षेत्र के वोटर बड़ी संख्या में सूची से बाहर हो जाते हैं, तो उसका सीधा असर चुनाव परिणाम पर पड़ सकता है।
क्या कहते हैं चुनाव आयोग के दिशा-निर्देश?
भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार, हर राज्य में नियमित अंतराल पर मतदाता सूची का पुनरीक्षण अनिवार्य होता है। इसमें जनप्रतिनिधियों, राजनीतिक दलों और आम नागरिकों की भागीदारी से पारदर्शी प्रक्रिया अपनाई जाती है। हालांकि, सवाल यह उठता है कि क्या बिहार में इस प्रक्रिया को समान रूप से, बिना पक्षपात और राजनीतिक हस्तक्षेप के लागू किया जा रहा है?
आलोचकों के तर्क
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मतदाता सूची की सफाई आवश्यक तो है, लेकिन जिस तरह से बिहार में इसे लागू किया जा रहा है, वह पारदर्शिता और भरोसे पर सवाल उठाता है। कई जगह पर अधिकारियों की भूमिका पक्षपातपूर्ण बताई जा रही है।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रविशंकर ने कहा, “मतदाता सूची सुधारना जरूरी है, लेकिन इसका तरीका बेहद संवेदनशील और निष्पक्ष होना चाहिए, ताकि किसी वर्ग को हाशिए पर ना धकेला जाए।”
समर्थकों की दलील
भाजपा और जदयू जैसे सत्ताधारी दलों का कहना है कि विपक्ष इस मुद्दे को सिर्फ राजनीतिक फायदा लेने के लिए उठा रहा है। भाजपा प्रवक्ता ने कहा, “यदि सूची में गड़बड़ी है, तो सुधार क्यों नहीं किया जाना चाहिए? क्या लोकतंत्र सिर्फ फर्जी वोटिंग पर टिके रहना चाहिए?”
जनता का नजरिया
बिहार के कई इलाकों में लोग इस पूरी प्रक्रिया से असमंजस में हैं। कई स्थानों पर यह देखने को मिला है कि जिनके नाम काटे गए हैं, उन्हें इसकी जानकारी तक नहीं दी गई। वहीं कुछ युवाओं को यह भी शिकायत है कि वह योग्य होने के बावजूद अब तक मतदाता सूची में नहीं जोड़े गए हैं।
निष्कर्ष
बिहार में मतदाता सूची का पुनरीक्षण सिर्फ एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि अब यह राज्य की राजनीति, सामाजिक ताने-बाने और लोकतंत्र की पारदर्शिता से जुड़ा एक संवेदनशील विषय बन गया है। ज़रूरी है कि इसे निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से लागू किया जाए, ताकि न तो किसी का विश्वास टूटे और न ही लोकतंत्र की नींव हिल जाए।